Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
View full book text ________________
श्रीआठ
बोलवि
कर्मप्रकृति
चार
स्तवनम्
|देशविरती तेम; सर्व विरती त्रीजु हणे ए ॥ ६ ॥ यथाख्यातनुं घातरे, चउथो तिम करे; ए गती
च्यार तस वरणवू ए॥७॥ नरग तिरीय नरदेवरे, पदवी पामीए; जिहांथी जिण वलतुं भणेए Alln८॥सोलभेद ए जाणरे. हास्य अरतीरती: सोग भय दुगंछासही ए॥९॥ थीनर कीचह तिनरे, | वेद सहीत इम; पचवीश चारीत्र मोहनी ए॥१०॥ दरिशण चारीत्र दोयरे, मीलि कर मोहनी; प्रकृति अट्ठावीश थइ ए ॥ ११ ॥ आउतणा चउ भेदरे, नरय तिरिय तिम; मानव देवता सुणो ए ॥ १२ ॥ तिरिय मनुष्यनु आयरे, जघन्य थकी कहुं; अंतरमुहुर्तनुं सही ए ॥ १३ ॥ पल्योपम त्रण जाणरे, अती अधिकुं घj; देवता नारकीनुं कहीए ॥१४॥ वर्ष सहस दश मानरे, जघन्यथकी तिम; तेत्रीश सागर अति घणुंए ॥ १५॥ आउकर्म इम जाणरे, एकसो त्रण भेद; नाम कर्मनां सांभलो ए ॥ १६ ॥
ढाल-३-त्रीजी साहेबजी श्री विमलाचल भेटीएं हो लाल-ए देशी ॥ | नरय तिरीयनर देव तणी गति जाणीएंरे, इग बीति चउ पणजाइ; पंचयर पंचयर देह सरुप
For
And Personal use only
Loading... Page Navigation 1 ... 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411