Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
View full book text ________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
श्रीआठ कर्मप्र
कृति
www.kobatirth.org
" अथ श्री आठ कर्मप्रकृति बोलविचारस्तवनम् लिख्यते"
दुहा— सकल मनोरथ पूरणो, वांछीत फल दातार; वीर जिणेसर नायको, जय जय जगदा धार ॥ १ ॥ श्री सिद्धारथ भूपति, कुल दीपक अवतंस; त्रिशला मात मनोहरु, उअर सरोवर हंस ॥ २ ॥ शासननायक जगधणी, वीनतडी अवधार; बालक बुद्धे जे करूं, तुज आगल सुवीचार ॥ ३ ॥ तुज दरिशण विणु वीरजी, चउद राज मोझार; भमतां मुजने तुं मल्यो, हवे भवपार उतार ॥ ४ ॥ भमवाना कारण भणुं, तुं जाणे जिनराय; मुल प्रकृति आठें अवर, अठ्ठावनसो थाय ॥ ५ ॥ सत्तावन हेतें करी, कर्मबंध सुवीचार; बंधण बांध्यो चोर जिम, भमीओ जीव अपार ॥ ६ ॥ कर्म विपाक तणुं घणुं, अर्थ कह्यो ते जेह; गुरुमुखे श्रवणे सुण्यो, सुणजो भवीयण तेह ॥ ७ ॥ ढाल - १ - प्रथम ॥ सारद बुध दाइनी ॥ निज शक्तिने सारुं- उजमणुं करो वारु ॥ ए देश ॥
पहेलुं नाणावरणह-भेद पंचय मन आणुं, मतिश्रुत अवधि तथा वली मनपज्जव जाणुं; केवल नाणावरण-जेम लोयण पडिवीजें, नवभेद दर्शनावरण बीजुं ए पभणीजें ॥ १ ॥ त्रृटक - चक्खु
For Private And Personal Use Only
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
बोलवि
चार
स्तवनम्
Loading... Page Navigation 1 ... 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411