Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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Acharya Sh Kailasageri Gyanmandi
स्तवनम्
श्रीमौन
सहसुं सही, ब्रत खंडणरे इण अवसर करसुं नही ॥ त्रुटक-नही जुगतुं मुजनें व्रत विलोपन, एकादशि रह्यो इम द्रढता ग्रही; पुर बल्यु सघलं सेठना, घर हाट ते उगस्यां सही; पुरलोक अचरीज देखी ||
सबलो, अति प्रसंसे दृढपणुं; हवें सेठने घरे करे सबलो, उजमणुं करवा तणुं॥३॥ढाल पूर्वली-13|| मुक्ताफलरे मणि माणीकने हीरला, पीरोजारे विद्रुम गोलक अतिभला; वर्णादिकरे सप्त धातुमेली रूली, खीरोदकरे प्रमुख विविध अंबर वली; टक-वली धानने पक्वान्न बहु विध, फूल फल मन उज्जले; इग्यार संख्या एक एकनी, ठवे श्रीजिन आगले; जिन भक्तिमंडे दुरित खंडे, लाभ लहे || नरभव तणो; महीमा वधारे सुविधा धारे, तप सुधारे आपणो ॥ ४॥ ढाल पूर्वली-सात क्षेत्ररे खरचे धन मन उल्लसी, संघ पूजारे साहमी भक्ति करे हसी; दीये मुनिनेरे ज्ञानोपगरण सुभमने, इग्यारसरे एम उजवी तेणे सुव्रते ॥ त्रूटक-तेणे सुव्रते एक दिवसे, वांद्या श्री जयसेखर गुरु; सुणी धर्म अनुमत मांगी सुतनी, लीये संजम सुखकरु; इग्यार तरुणी ग्रहे संयम, तपतपी अति नीरमलं ते लही केवल मुगते पहोता; लहो सुख धन उजलुं ॥ ५॥ ढाल पूर्वली-दोयसें छहरे है
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