Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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Acharya Sankalaager
Gamandi
श्रीआठ
कर्मप्र-
| बोलवि
चार स्तवनम्
कृति
॥१९३॥
EARNARENER
दान, छतां भोग नवि भोगवे-भोगांतराय निदान; अंतराय लाभह तणुं-जिहां नविलाभ संजोग, उपभोग अंतराय करेनहीं-अनंगनादिक भोग ॥४॥बलवीर्य जन फोरवे-ते वीरज अंतराय, अंतराय अंतराय लक्षण-रायभंडारी भाय;प्रत्यनीक नीन्हवपणे-अंतराय उपघात,अत्याशातनथी करे-दो आवरण विख्यात ॥ ५ दृढधर्मी गुरु भक्ति-दानरुचीअकषाय, करुणा व्रतयुत बांधे-साय अवर असाय; शुद्ध मारगने ओलवे-खोटो मार्ग दिखाय, देवद्रव्य हरवें करी-दसण मोह कहाय ॥६॥ कषाय हास्यादिकें करी-दोय चरण मोहबंध, माहारंभादिक कारणे-नरका युष्य बंध; शल्य सहीत मांजीशठ-तिरियाउ बंधेइ, सहजें अल्प कषायें-दानरुची संघेइं॥७॥ मनुष्यतणुं आयुतिम
देवतणुं हवे जोय, अकाम बाल तपसी कहुं-अविरतीयादीक होयें; सरलरस रिद्धि शाता-गारव |हितवखाणी, नाम कर्म शुभबांधे-अवर अशुभ तीम जाणी ॥ ८॥ गुणपेह मद नविकरे-भणे भणावें जेह, उंचगोत्र ते बांधे-नीच अवर गुण तेह; जिनपूजादीक विघ्नकर-हिंसादीक पर होय, अंतराय कर्म बांधे ते-तेहथी भवीयण सोय ॥९॥
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