Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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श्रीवैमा निकजिन
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भावी हो लाल के भावना ॥ लाख चोराशी सहससत्ताणुं उपरे हो लाल के० सत्ता०, त्रेवीश जिनगृह शाश्वता भाख्या जिनवरे हो लाल के० भाख्या ॥ १ ॥ एकसो आठ जिनबिंब गभारे मूलगें हो | लालके० गभारे० स्तूपत्रिक तिहां द्वादश तेजे झगमगे हो लालके० तेजे ॥ पंच सभाए साठ तित्थंकर वंदना हो लालके० तित्थंकर, चैत्यअकेके एकसोएंसी जिन वंदना हो लाल के० एंसी ॥२॥ सो कोड बावन्न| कोड चोराणुंलाख भली हो लाल के० चोराणुं, सहस चुंआलीस सातसें साठ बिंब सवि मली हो | लाल के० साठ ॥ उर्द्धलोके जिनपडिमा वंदन आचरो हो लाल के० वंदन, ऋषभादिक च्यारनाम संभारी चित्त ठरो हो लाल के० संभारी ॥३॥ शिर छत्रधर एक दो चामर धरा हो लाल के० दो, नाग जक्षभूत कुंडधर दो दो सुरवरा हो लाल के० दो दो ॥ जल कुंभसाही उभा मूलबिंब आगलें हो लालके० मूल ॥ | एकादश सुरपडिमा प्रणमें परिकरे हो लाल के० प्रणमें ॥ ४ ॥ सकल कुशल सुरवेलि घनवन जलधरु हो लालके० घनवन, सेवकजन मनवंछित पूरण सुरतरु हो लालके ० पूरण ॥ श्री नाभिनरेसर नंदन वन अलज्यो हो लाल के० वनके० नीरागी निकलंक निरंजन तुं जयो हो लाल के० निरंजन ॥५॥
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स्तवनम्