Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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स्तवनम्
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श्री वैमा-| हो एकशत सात तेह के ॥ शाश्वत० अंतर०॥३॥ बार हजारने आठसे, उपर चालीश हो जिन निकाजनासाबिंब उदार के ॥ सोमनस प्रीतिकर आदित्य, अवेयके हो त्रितीय त्रिक सार के ॥ शाश्वत. ॥१८॥
अंतर०॥ ४॥ सुरविमान घंटानाद ए, प्रासाद हो एकशत मनोहार के ॥ बार सहस्स जिनरा जनां. बिंब दीपें हो सुंदर श्रृंगार के ॥ शाश्वत. अंतर०॥५॥ विजय विमान अवधारीए, बीजं पभणुं हो विजयंत विमान के ॥ वैजयंत अपराजित, सर्वार्थ सिद्ध हो पंचम अभिधान के॥ शाश्वत० अंतर०॥६॥ पंचविमान पंचानुत्तरें, प्रासाद घंटला हो पंच पंच विख्यात के ॥ षट्शत जिनबिंब भेटीए, प्रह उठी हो निर्मल हुइ गात्रतो ॥ शाश्वत० अंतर०॥७॥ पंचसभा नहि जिनघरे, ग्रैवेयके हो पंचानुत्तर ठामके ॥ एकसो वीश पडिमा तिहां, प्रतिचैत्ये हो पूजो सुखधाम
के ॥ शाश्वत० अंतर०॥ ८॥ A ढाल-३-त्रीजी ॥ थाहरा मोहोला उपर मेह, झरुखेवीजली हो लाल-ए देशी
दोलत दायक नायक श्री जिन सेवीएं हो लाल के श्री जिन सेवीए, उर्द्धलोके जिनमंदिर भावना
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॥१८९॥
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