Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri

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Page 391
________________ Shn Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीआठ कर्मप्र कृति ॥१९१॥ www.kobatirth.org. | अचक्खु अवधि० तेम - केवल ए प्यार, दरशननुं आवरण जेह-पण निद्दा विचार; निद्रासुख जागंतां जाणि- दुक्खें निद्रा निद्रा, प्रचला बेठा तेम कही उभां जेह निद्रा ॥२॥ ढाल पूर्वली- -प्रचलाप्रचला तिम सही चालतां जेंह, थीणद्धी निद्रातणुं - बल माण मुणेह; वासुदेवथी अरधुं -कहुं इम निद्रा - पंच, नवभेद दरशणना-वरणवं एहसंच ॥३॥ त्रूटक-सामने देखीउं जेह, दरिशण पभणीजे, विशेषथी जाणीजे जेह, ते ज्ञान कहीजे; मधु खरडी असिधारा लिहन- समवेदनी कर्म, साता असाता दोयभेद जाणुं सहु मर्म ॥ ४ ॥ ढाल - २ - बीज ॥ पामी सुगुरु पसायरे शेत्रुंजा धणी - ए देशी ॥ हवे मोहनीय विचार, दरिशण चारित्र; बिहुं भेद जिन ते कधुं ए ॥ १ ॥ समकित मिथ्या त्वरे, दरिशण मोहनी; त्रिहुं भेदें इम जाणीएं ए ॥ २ ॥ क्रोध मान तिम जाण रे, माया लोभ ए; अनंतानु बंधी भणुं ए ॥ ३ ॥ तेम अप्रत्याख्यानरे, प्रत्याख्यान ए; संजलना चउ चउ गणुं ए ॥ ॥ जावजीव तिम जाणरे, वच्छर चउमास; पखवाडो स्थिती तेहनी ए ॥ ५ ॥ पहिले समकित घातरे, For Pitvate And Personal Use Only Acharya Shn Kailassagarsuri Gyanmandir बोलविचार स्तवनम् ॥१९१॥

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