Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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अर्थ सहित
संयम-18| गाथा-उपर मध्यथीरे संयम स्थानक जेभजे, ते नियमारे हेठ उत्तरी पुनरपि सजे; श्रेणीनुं । अंतर्मुहूर्त्तनीरे बुढ्ढी हानि ठाणमां, हुए मुनिनेरे ज्ञानी देखे ज्ञानमां ॥९॥ स्तवनम्
| भावार्थः-उपरलां संयम स्थान तथा वचला संयम स्थानक अनुक्रमे फरसे ते निश्चये करीने से | हेठो उतरीने कालांतरे पुनरपि वली सजे सावधान थइ संयम श्रेणि पामे यदुक्तं-"अंतो मित्तंपि, फासियं हुज्ज जेहिं सम्मत्तं; तेसिं अवट्ठ पुग्गल, परिअट्टो चेव संसारो" ॥१॥ तो संयम पाम्यानु स्युं कहेवू अंतर्मुहूर्त काल प्रमाणे अधस्तन संयम स्थानकथी उपरितन संयम स्थानारोह रूप वृद्धि तथा उपरितन स्थान थकी अधस्तन स्थानावरोह रूप हानि मुनिने थाय हे ज्ञानवान् वीर परमेश्वर ते तमे देखोछो यदुक्तम्-कल्पभाष्ये गाथा द्वयम् “एयं चरित्त सेटिं, पडिवज्जइ हेठ कोइ उवरिंव; जे हेठा पडिवजइ, सिलाइ णियमा जहा भरहो ॥१॥ मने वा उवरिंवा, नियमा गमणं तु हेठि मंठाणं; अंतो मुहत्त वुड्डी, हाणि विते हेव नायव ॥२॥ इति ॥९॥
त्रुटक-अप्पबहुअ विचार करतां अनंत गुणना थोअडा, तेहथी गुणह असंख्य
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