Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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संयम श्रेणी, स्तवनम्
सात
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इति त्रिकांतर मार्गणा ॥ चउरंतररे अनंत गुणादिम ठामथी, हेठे स्थानकरे भाग अणंतना मानथी॥७॥
भावार्थः-इम छठी अनंत गुण वृद्धना पहेलां स्थानकथी हेठल बीजा वृद्धना असंख्यात भाग वृद्धना स्थानक पण पूर्वे जेटलां एटले त्रिकांतर (वृद्ध) मार्गणानां अनंतर कल्छे तेटला जाणवा इति त्रिकांतर मार्गणा-चउरंतर मार्गणाने विषे अनंत गुण वृद्धनां आदिम कहेतां प्रथम स्थान कथी हेठलां स्थानक अनंत भाग वृद्धनां प्रमाणथी केटलां छे ते आगल कहे छे ॥ ७॥ | Jटक-परिमाणथी ते अष्ट कंडक वर्ग वर्गा षड् ठाणा, चार कंडक वर्ग आगल एक कंडक सोभना; इति चतुरंतर मार्गणा ॥ पर्यवशाननी मार्गणा ते षट्स्थानक पूरे करे, मूलथी संयम ठाण फरसी वीरविभू केवल वरे ॥ ८॥
भावार्थः-ते परिमाणथी आठ कंडक वर्ग कंडक संज्ञा ४ ने तद्गुणो वर्गः १६ वर्ग कंडक गुणोधनः |
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