Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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ShriMahaveJain ArahanaKendra
श्री
स्तवनम्
॥१८७॥
___ ढाल-७-सातमी-न जाउरे जमुना घाट एणी एणी वाटडीए-ए देशी॥ देवलोक
। पहेलं विजयविमान-भवितुमे वंदोरे,जिम पामो सुख अपार-एहने नंदोरे॥एआंकणी॥ विजयंत विमान ते बीजू जाणो,त्रीजं जयंत ते साररे; अपराजित चोथु कयु रे, सर्वारथ ते प्यार भवि०जिम ॥१॥ए पांचे विमान ते जाणी, पंच प्रासाद सुहावेरे; चैत्यदिठ एकसोवीश प्रतिमा, देखी। आनंद पावे भवि० जिम ॥ २॥ हवे पांचे प्रासाद मलीने, बसें जिनबिंव जाणोरे; बार देवलोक ने नव अवेयक, पांच अनुत्तर आण भवि०जिम ॥३॥ लख चौराशी सहस सत्ताणुं, तेवीश प्रासाद साररे; ए सर्व प्रासादनी संख्या, कहि सूत्रतणे अनुसार भवि० जिम ॥४॥ बावन्न सत्तकोड
ने लख चोराणुं, सहस्स चुमाली प्रसिद्धरे; सातसे उपर साठ जाणो, जिनबिंब भवि सिद्ध भवि० ४ जिम ॥ ५॥ इत्यादिक जैनागममांहि, ए विवरों रसालरे; पंडित फत्ते सागर तणोरे, चतुर वचन
णारचतुर चन टंकशाल भवि०जिम ॥६॥ __ कलश-इम सयल सुखकर दुरित दुःखहर विमान चैत्य में गाइया, गुरु फत्ते सागर पसायथी|
१८७॥
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