Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri

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Page 384
________________ स्तवनम् श्री वैमा- में जिह्वातणुं फल पाइया; धर्मवंत जडाव बाइ कहेणथी ए स्तव कर्यु, इम चतुर कहे ए स्तवनथी निकजिन में भवतणुं पातिक हर्यु ॥१॥ " "इति श्री देवलोक स्तवनम् संपूर्णम्" "अथ श्री वैमानिक जिन स्तवनम्" ढाल-१-पहेली ॥ परमातमरेचिदानंदघनसारए ॥ ए-देशी॥ सुखदायीरे सरसह जिणंद दयालरे, प्रेमे प्रणमीरे चउद भुवन भूपालरे; देवलोकेरे देवविमान संख्या भणं, जिनमंदिररे जिनप्रतिमा तिहां संथु); MI त्रटक-संधुण सुधर्म देवलोके विमान बत्रीश लाख ए, बत्रीश लाख प्रासाद सुंदर घंट नाद |तिम दाखी ए; कोडी सत्तावन साठिलाख जिनप्रतिमा तिहां कनकमय, अट्ठावीस लाख विमान बीजे इशानकल्पे मन रमे ॥ १॥ ढाल पूर्वली-अठ्ठावीसरे लाख प्रसाद अति रलीयामणा, तिहां For And Personal use only

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