Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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संयमश्रेणीनुं
स्तवन ॥१७॥
गुरुनां वचन जाण्या होय ते एक कंडक वर्ग वर्ग एटले जेम असत् कल्पनाए चार आंकने कंडक स्थापी तेनो वर्ग करतां सोल थाय तेनो वर्ग करता २५६ थाय एरीते असंख्यातानुं समजवू-उपर वली कंडक घन त्रिण ३ तथा वली कंडक वर्ग३त्रिण वली उपर एक कंडक होय ते सर्व उत्तम श्रद्धा सहित मनमा राखे ए संख्या केम जाणीये जे माटे प्रथम असंख्य गुण वृद्धनां स्थानकथी हेठल संख्यात गुण वृद्धनां स्थानक कंडक माने गयाछे-तिहां एक एक स्थानकने हेठल प्रत्येके अनंत भाग वृद्धनां स्थानक कंडक घन १ कंडक वर्ग २ कंडक प्रमाण पामीए ते माटे पर्वने कंडक गुणा करीने सरवालो करी राखीए संख्यात गुणा वृद्ध कंडकने उपर कंडक घन १ कंडक वर्ग २ एक कंडक छे ते पूर्व राशिमा प्रक्षेपीए तेवारे यथोक्त मान थाय यदुक्तं पञ्चसंग्रहे "कंडस्सवग्ग वग्गो घण व ग्गाति
|॥१७८॥ गुणिया कंडं" इति ॥६॥
गाथा-छठा वृद्धिनारे पहेला ठाणथी हेठलां, बीअवृद्धिनारे स्थानक पूरव जेटला; ||
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