Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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संयम
श्रेणीनुं
स्तवनम्
॥९७७॥
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उपर एक कंडक जेम पूर्वे कह्यांछे तेम समजवा. इति एकांतर मार्गणा ॥ यदुक्तं पञ्चसंग्रहे - एगंत राओ वुट्टिए, वग्गो कंडस्स कंडंच ॥ ए रीते एकांतर मार्गणा कही, हवे यंतर मार्गणा सांभलो अंतरमार्गणा ते बेवृद्ध बिचाले मुकीने पूछीए संख्यात गुणनां प्रथम स्थानकथी अनंत भाग वृद्धिनां स्थानक केटलां ते हे शुभमन ? कहीए छीए ॥ ४ ॥
गाथा -कंडक घनरे कंडक वर्ग दुगुण करो, एक कंडक रे तस संख्या मनमां धरो; दुग अंतर रे असंख्य अनंत गुणथी लह्यां, अधः स्थानक रे पूरव परे जाणो कह्यां ॥ ५ ॥
भावार्थ — कंडक घरना कंडकवर्ग २ इहां संख्यात गुण वृद्धनां प्रथम स्थानकथी हेठल प्रत्येके एक एक संख्याता भाग वृद्ध स्थानक ने हेठल प्रत्येके एक एक कंडक अधिक कंडक वर्ग अने एक| कंडक पामीए-ए सर्व भेला करतां संख्या थाय ते मनमां धरो एकवर्ग अनंत भाग वृद्ध स्थानकनो पामीए अने संख्यात भाग वृद्धि स्थानक कंडक प्रमाणछे ते वास्ते कंडक वर्ग जे वारे एक कंडकसाथे गुणीए ते वारे कंडक घन थाय अने एक कंडक छे तेने कंडक साथे गुणीए ते वारे कंडक
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अर्थ सहित
॥९७७॥