Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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संयम- श्रेणीनुं स्तवनम् ॥१७६
अनंत भाग वृद्ध कंडकने अनंतर जे असंख्याता भाग वृद्धिनुं प्रथम स्थानक थयुंछे इममाटे ते संख्याता अर्थ भागनां प्रथम स्थानकथी असंख्य भाग वृद्धनां स्थानक तथा संख्यात गुण वृद्धना प्रथम स्थानथी संख्यात भाग वृद्धनां स्थानक तथा असंख्यात गुण वृद्धनां प्रथम स्थानथी संख्यात गुण वृद्धिनां । स्थानक तथा अनंत गुंण वृद्धिनां प्रथम स्थानकथी असंख्यात गुण वृद्धिनां स्थानक कोइ पुछे त्यारे सर्वत्र हेठल आंतरा रहित मार्गणाये कंडक प्रमाणे संयमस्थानक केवली कहे-यदुक्तं (पंचसंग्रहे ) सवासं वुद्विणं कंडक मेत्ता अनंतरा बुंडीइ-अनंतर मार्गणा हवइ ॥ २ ॥
गाथा-एकांतर रे मार्गणा सुणो सवि संतरे, भागे संख्याते रे मूल स्थानकथी तंतरे; हेठे स्थानक रे भाग अनंतनी भाखीए, एक कंडक रे कंडक वर्ग ते दाखीए ॥३॥
भावार्थः-हे सर्व संतो ? एकांतर मार्गणा तमे सांभलो एकांतर मार्गणा ते एकवृद्धि विचाले |IREOn मुकीने पूछवो-संख्यात भाग वृद्धनां मूल स्थानकथी प्रथम स्थानकथी हेठल अनंत भाग वृद्धिनां
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