Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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She Mahave.aamaamanaKendra
संयमश्रेणीनुं स्तवनम्
___ गाथा-इम वृद्धिद्वय अंतरेंजी, कंडक माने रे ईठ; अंस संख्या ते वृद्धिनांजी, स्थानक । अर्थ जिनवर पुठ० गुणो दधि० मेरु० ॥ १२॥
सहित | भावार्थः-एम आगल पण बेबे वृद्धिना स्थानकने विचाले एक एक संख्या निक करतां कंडक प्रमाणे हे इष्ट ? हे प्राण वल्लभ? नीपजे ॥ ते असंख्यात भाग वृद्धिनां स्थानक हे जिनवर हे वीतराग तमने फरस्यां ॥ १२॥ | गाथा-वलि पूरवद्वय वृद्धिनांजी, स्थानक सर्व करेह; आगल गुण संख्यातनुंजी, स्थानिक एक धरेह० गुणोदधिः मेरु० ॥ १३ ॥ | भावार्थः-वली संख्यात भाग वृद्धि कंडकनां चरम स्थानक ने आगल पूर्वनी बे वृद्धिनां जेटला स्थानक गयाछे ॥ तेटलां सर्व स्थानक करवां ॥ तेहने आगल संख्यात भाग वृद्धिनुं कंडक पुरुं थयुं तेमाटे तेहने ठामे संख्यात वृद्धिन एक संयम स्थानक धरिए ॥ स्थापीए एटले पाछला अनंतर भाग वृद्धिनुं कंडक गयुं तेनां चरम स्थानकमां जेटलां अविभागछे ॥ ते उत्कृष्ट संख्यात गुणा
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