Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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संयम
श्रेणीनुं
स्तवनम्
॥१६९॥
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संयम स्थानक फरसे पण पांच वृद्धि कर्या पछी प्रसंगे आव्युं अनंत गुण वृद्धिनुं स्थानक ते न करवुं जे माटे षट् स्थानक पूरुं थयुं ते माटे प्रवचन अनुसार क० "कल्प भाष्य" तथा " प्रवचन सारोद्धार” नी टीकाने अनुसारे कयुं छे षट् स्थानकनुं परिमाण प्ररूपणा एतावता स्वमति कल्पनाए नथी कयुं ॥ १९ ॥
गाथा - असंख्य लोका काशनाजी, प्रदेशने परिमाण; एक षट् स्थानक उपरेजी, उठे वली षट् ठाण० गुणोदधि० मेरु० ॥ २० ॥
भावार्थ:- एक चौदराज प्रमाण लोकछे एवा असंख्याता लोकाकाशमां कल्पीये तेना जेटला आकाश प्रदेशनो समुह तेटला प्रदेशने परिमाणे उक्तंच ॥ छ ठाणग अवसाणे, अन्नं छठाणयं पुणो अन्नं; एव मसंखा लोगा, छ ठाणाणं मुणेअवा ॥ १ ॥ एक प्रथम मूल षट् स्थानक उपर उपर वली बीजा षट् स्थानक उपर जे एतावता असंख्याती वार उपर उपर षट् स्थानक थायई इति ॥ २० ॥
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अर्थ
सहित
॥१६९॥