Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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संयम
श्रेणीनुं
स्तवनम्
॥१७०॥
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संख्यात गुण वृद्ध ४ असंख्यात गुण वृद्ध ५ अनंत गुण वृद्धि ६ इहां भाग तथा गुण कुण संख्याए ते जाणवा ने आगम गाथा "सब जिए हिं अनंतं, भागं च गुण असंख; लोगेहिं जाण असंखं, संखं संखी जेणं च जिठेणं ॥ १ ॥ एहनो अर्थ इहां षट् स्थानक ने विषे अनंत भागने अनंत गुण सर्व जीवें जाण असंख भाग तथा असंख्याता लोकाकाश प्रदेशे संख्यात भाग तथा संख्यात गुण उत्कृष्ट संख्याए तथाही जे संयम स्थानक अनंत भागे वृद्ध पाने ते पाछला संयम स्थानकनां जे अविभाग तेहनुं सर्व जीव संख्या प्रमाणे भाग हरे ते जेटला लाभीये तावत् प्रमाण अनंत भागे अधिकुं जाणवुं जे असंख्यात भाग वृद्ध ते पाछिला संयम स्थानिकना निर्विभाग असंख्य लोका काश प्रदेश प्रमाण भाग हरे ते जें पामीए तावत् प्रमाण असंख्ये भागे अधिकं जाणवुं जे असंख्यात भागे वृद्ध ते पाछला संयम स्थानकना अविभाग तेहनुं उ० संख्यातक राशिं भाग हरता जे लाभे तेटले संख्यात भागे अधिकं जाणवुं जे संख्या गुणे वृद्ध ते पाछला संयम स्थानना जे | निर्विभाग उ० संख्यात गुण राशि गुणता थाय तावत् प्रमाण जे असंख्यात गुण वृद्ध ते पाछला
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अर्थ
सहित
॥१७०॥