Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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संयम
श्रेणीनुं
स्तवनम्
॥१७३॥
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पांचसे ५०० एतावता संख्यात वृद्धिनुं कंडक १ संख्यात भाग वृद्धिनां कंडक ५ असंख्यात भाग वृद्धना कंडक २५ अनंत भाग वृद्धिना कंडक १२५ ते वार पछी असंख्यात गुण वृद्धिरूप प्रथम स्थानकनो चोगडो मांडीये एरीते चार त्रगडा वीस बगडा एकागये थके बीजो चोगडे चार | चोगडाथाय एटले शत १०० सहित मीडां ५०० मांडीए ए परीपाटी असंख्यात गुण वृद्धनुं कंडक पूरुं थयुं चोथा चोगडाने अनंतर ४ चार त्रगडा २० बगडा १०० एकडा ५०० मीडां स्थापीए सर्व बगडा शत १०० एकडा एतावता असंख्यात गुण वृद्ध मली चोगडा चार त्रगडा २० ५०० मीडां पचवीससें २५०० कंडक १ संख्यात गुण वृद्धिनां कंडक ५ संख्यात भाग वृद्विनां कंडक २५ असंख्यात भाग वृद्धना कंडक १२५ अनंत भाग वृद्धिनां कंडक छसें पचवीस ६२५ थायछे ॥ ५ ॥
गाथा - हवे अनंत गुण वृद्धि पदे ठवि पंचक चंग, पुनरपि पूरव रीते मीडां अंक सुरंग; | तेवार पछी पंचक इम पंचक चउ जव थाय, आगे पण पचवीससे मीडां अंक कराय ॥ ६ ॥ भावार्थ:- हवे अनंत गुण वृद्धि पदे कहेतां अनंत गुण वृद्ध रूप प्रथम स्थानकने ठामे एक
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अर्थ
सहित
॥१७३॥,