Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri

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Page 353
________________ ShriMahavirain AartmenaKendra www.kobatirth.org Acharya Sh Kailas Gyanmand संयमश्रेणीनुं जानु स्तवनम् ॥१७२॥ भावार्थः-वली आगल अनंत भाग वृद्धिना कंडक मात्र स्थानक थाय तेहने ठामे चार बिंदु स्थापीए आगल असंख्य भागनुं एक स्थानकछे ते माटे वली एकडो स्थापीए एरीते चार चार बिंदुने आंतरे चार एकडा थाय एटले संख्य भाग वृद्ध कंडक थयुं ते वार पछी आंतरा रहित अनंत भाग वृद्धनुं कंडक आवे तेहने ठामे चार बिंदु स्थापिए एटले सघला सरवाले चार एकडा अने वीश मीडां थयां आगल संख्यात वृद्धनुं स्थानक एक आवे तेने ठामे बगडे बगडा आवे तेवारे संख्यात भाग वृद्ध कंडक पूरूं थाय जाणनी स्थापना एरीते चार एकडा गर्भित वीसमीडां : अनंतर संख्यात भाग वृद्धनो एक एक बगडो आणतां जेवारे चार बगडा आवे ते वारे संख्यात भाग वृद्ध कंडक पूरं थाय तेवार पछी वली चार एकडा गर्भित वीस मीडां आवे ॥३॥ गाथा-चउ बीआ वीस एक मीडां शत समुदाय, भागनी वृद्धि मांहि थयां हवे गुण रद्धि कहेवाय; संख्यात गुणनी रद्धिमां तीओ आदि उदार, इम सवि मीडां अंका विचे । ठविति आच्यार ॥४॥ ॥१७२॥ 545544 For Pale And Personal use only

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