Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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संयमश्रेणीनुं
स्तवनम्
॥१७४॥
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गुण वृद्ध कंडक २५ संख्यात भाग वृद्धना कंडक १२५ असंख्यात भाग वृद्धना कंडक ६२५ अनंत भाग वृद्धना कंडक एक त्रीशसेंने पंचवीश सरवाले ३९०६ कंडक थयां ए सर्व यंत्र प्रमाणे असत्कल्पनाए लख्युंछे परमार्थ रीते आगली ढालमां कहिए छीए ॥ ७ ॥
गाथा - संयम श्रेणिमां श्रेण क्षपक लही शुक्लध्यान, घाती कर्मनो क्षय करि पाम्या पंचम ज्ञान; प्रवचन सारनी वृत्तिमां यंत्रनी ठवणा दीठ, खिमाविजय जिन वयणथी उत्तम चित्त पविठ ॥ ८ ॥
भावार्थ:-संयम श्रेणि आरोहतां अनुक्रमे क्षपक श्रेणी मांहि शुक्लध्यान पामीने घातीआं चार ४ कर्म क्षय करतां यथाख्यात चारित्र केवलज्ञान - केवलदर्शन रूप रत्नत्रयी पाम्या तद् अनुक्रमें यथा| अप्रमत्तगुणठाणे अनंतानुबंधी चार ४ दर्शनमोहनीय त्रिक त्रण ३ एवं सात प्रकृति क्षय करी अपूर्व करण | अनिवृत्ति गुणठाणे चढ्या अनिवृत्तिना प्रथम भागने अंते १६ सोल प्रकृति खपावे तेनां नाम “थावर |तिरि निरया यव, दुग थिण तिगेग विगल साहार;" बीजे भागने अंते अप्रत्याख्यानीया चार ४ प्रत्या
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अर्थ सहित
॥१७४॥
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