Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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संयमश्रेणी- स्तवनम्
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NASEARCASSALA
बिंदु च्यार; असंख भाग वृद्धिनुं स्थानक आगल एक, तस ठामे ठq एको मनधरी|| अतिहि विवेक ॥२॥
भावार्थ:-अनंत भाग वृद्धिना स्थानक भला कंडक मात्र अंगुल असंख्य भाग मत आकाश प्रदेश प्रमाणे छे. यद्यपि ते अनंत भाग वृद्ध स्थानक असंख्याता छे तोपण असत् कल्पना ए चार बिंदु है। स्थापुंछं एटले अनंत भाग वृद्ध कंडक पूरुं थयुं ते माटे आगल असंख्यात भाग वृद्धिनुं स्थानक एक आवे तेहने ठामे १ एकडो मनमा अत्यंत विवेक आणीने स्थापुंछु पूर्वोक्त.स्थानकथी भिन्न पडवा निमित्ते एम सर्वत्र जाणवू ॥२॥ __गाथा-चउ चउ बिंदु अंतर इम होय एकाचार, तदनंतर चउ बिंदु सघलां वीश : उदार; आगल भाग संख्यातह वृद्धितो बीओ जाण, इम चउ बीआ ठवतां मीडां शत परिमाण ॥३॥
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