Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
View full book text
________________
अर्थ
संयम- श्रेणीनुं स्तवनम्
साहत
गाथा-एह संयम गुण ठाणमांजी, जे वर्ते मुनि सोय; वंद्य अपर भजना पणेजी, भाष्य कल्पमा जोय० गुणोदधि० मेरु० ॥२१॥
भावार्थ:-पह संयम गुणठाण क. चारित्र गुणना स्थानका एटले छटा गुणठाणाना आदि स्थानकथी मांडी असंख्यात चारित्र रूप चरम स्थान पर्यंते तेहमां जे मुनिराज वर्तेछे ते वांदवा योग्य पण वेषमात्रनुं प्रयोजन नहीं उक्तंच "वेसो विअप्पमाणो, असंजमए सुमाणस्स; किं परि अत्तिय वेसं, विसंन मारेइ खजंतं इति ॥१॥ अपर क० बीजा संयम श्रेणीथी बाह्य ते भजनाए वंदनीक एतावता कारणे वांदवायोग्य छे कारण विना नहीं ए अर्थ बृहत्कल्प भाष्यमा जोवो उक्तंच "संयम ठाण ठियणं किइकम्मे बाहिराणं भइयत्वं इति ॥ २१॥ | गाथा-षट् स्थानिक संयम तणाजी, कहेतां स्तवतारे वीर; खिमा वीजय जिन भक्तथी जी, उत्तम लहे भव तीर० गुणोदधि० मेरु० ॥२२॥ - भावार्थः-षट् स्थानक नाम अनन्त भाग वृद्धि १ असंख्य भाग वृद्धि २ संख्यात भाग वृद्धि
For Fate And Personal use only