Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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Shri Mahavir Jain Aradhana Kendr
वर्धमान
तप
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"अथ श्री विजय धर्म सूरि सिस्य रत्नविजय कृत वर्द्धमान तप स्तवन"
दुहा-वर्द्धमान जिनपति नमी, वर्द्धमान तप नाम; ओलि आयंबिलनी करूं, वर्द्धमान परिणाम ॥ ९ ॥ एक एक दिन यावत् शत, ओली संख्या थाय; कर्म निकाचित तोडवा, वज्र समान गणाय ॥ २ ॥ चौद वर्ष त्रण मासनी, ए संख्या दिन वीश; यथा विधि आराधता, धर्म रत्न पद इश ॥ ३ ॥
ढाल - १ - पहेली ॥ नवपद धरज्यो ध्यान, भविक तमे नवपद धरज्यो ध्यान ॥ ए देशी ॥ तप पद धरज्यो ध्यान-भविक तमे तप पद धरज्यो ध्यान ॥ नामे श्री वर्द्धमान ॥ भ० दिन दिन चडते वान ॥ भ० ॥ सेवो थई सावधान ॥ भविक तमें तप पद धरज्यो ध्यान ॥ आंकणी ॥१॥ प्रथम ओली एम पालिनेरे, बीजीए आयंबिल दोय ॥ भ० ॥ त्रिजी एत्रण चोथी चार छेरे, उपवास अंतरे होय ॥ भविक० ॥२॥ एम आयंबिल सो वृत्तनीरे, सोमी ओली थाय ॥ भ० ॥ शक्ति अभावे आंतरेरे, विश्रामे पहोचाय ॥ भ विक० ॥३॥ चौद वर्ष त्रण मासनीरे, उपर संख्या वीश ॥ भ० ॥ काल मान ए जाणवुंरे, कहे वीर जगदीश | ॥ भविक० ॥ ४ ॥ अंतगड अंगे वर्णव्युंरे, आचार दिनकर लेख ॥ भ० ॥ प्रथांत्तरथी जाणवुरे, ए
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स्तवनम्