Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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सौभाग्य पंचमी
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स्तवनम्
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हजार कोड वर्षतुं ॥ राज०॥ उपवासे नरक आयुष्य ॥ अहो० ॥९॥तप सुदर्शन चक्रथी ॥ राज०॥ करो कर्मनो नास ॥ अहो० ॥ धर्म रत्न पद पामवा ॥ राज०॥ आदरो तप अभ्यास ॥ अहो॥१०॥ ___ कलश-तप आराधन धर्म साधन वर्द्धमान तप परगडो, मन कामना सहु पूरवामे सर्वथा ए सूर घडो; अन्नदानथी शुभ ध्यानथी शुभवि जीव ए तपस्या करो, श्री विजय धर्म सुरिश शेवक रत्नविजय कहे शिव वरो ॥१॥
"इति श्री वर्धमान तप स्तवनम् संपूर्णम्" “अथ श्री कांतिविज्यजी कृत श्री सौभाग्य पंचमी स्तवन" ढाल १-प्रथम ॥सूरती महीनानी॥धीरपुरे एक शेठने पर्व दिने व्यवहार ॥ अथवा ॥ शासन नायक लायक शिववधु कंत मुनीश ॥ ए देशी ॥ प्रणमुं पवयण देवी रे सुर बहु सेवीत पास ॥ पंचमी तप महिमा कहुं देज्यो वचन प्रकास॥ जे सुणता दुख नीकसे रे वीकसे संपद हेज॥आगिम
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शां. १५
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