Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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संयमश्रेणीनुं
स्तवनम्
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त्कृष्ट देशविरति विशुद्ध स्थानकनां निर्विभाग भागथी सर्व जीव अनंत रूप गुणकारे अनंत गुणा जाणवा ॥ ग्रंथांतरे असत् कल्पना ए उत्कृष्ट देशविरति विशुद्ध स्थानकनां अविभाग १००० छे ॥५॥ गाथा - भाग अनंते आदिथीजी, बीजे ठाणे रे वृद्धि; इम अनंत भागुत्तरेंजी, स्थानकनी होय सिद्धि० गुणो दधि० मेरु० ॥ ६ ॥
भावार्थ:-ए पहेलां संयम स्थानकेथी अनंतमे भागें एतले प्रथम संयम स्थानमां जेटला अविभाग छे ॥ ते सर्व जीवनें वहेंची आपतां एक जीव ने भागे एतले प्रथम जेटलां संयमनां अविभाग आवे तेटलां बीजा संयम स्थानकमां वृद्धि होय ॥ एम बीजां संयम स्थानथी त्रीजामां ॥ त्रीजाथी चोथामां यथोत्तर अनंत भाग वृद्धि होय । तेम आगल पण संयम स्थानकनी निष्पत्ति जाणवी ॥ ते केटलां होय ते आगल कहे छे ॥ ६ ॥
गाथा -अंगुल भाग असंख्यमांजी, जे आकाश प्रदेश; तेतां स्थानिक नीपजेंजी, कंडक तास निवेश० गुणो दधि० मेरु० ॥ ७ ॥
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अर्थ
सहित