Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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Shi Mahavir Jain Aradhana Kendis
अर्बुदाचलउत्पत्ति
॥१५९॥
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भमतां पामीयो ॥ सुंदर आर्य क्षेत्र ॥ रंगीले ॥ हवे ॥ ११ ॥ संसार चक्र मोहजालमां ॥ भमतां नाव्यो पार ॥ रंगीले ॥ कुण आगल कहुं वीनती ॥ जिनपति तुं अवधार ॥ रंगीले ॥ हवे ॥ १२ ॥ रत्नत्रय जिनवर कह्यां ॥ ज्ञान दर्शन चारित्र ॥ रंगीले ॥ सुद्ध परे नवी आदस्यां ॥ न कस्यो जन्म पवित्र | रंगीले ॥ हवे ॥ १३ ॥ तारक बिरुद प्रभु ताहरो ॥ संभारो जिन देव ॥ रंगीले ॥ ताहरा चरण पंकज तणी, नित्य आपेवी सेव ॥ रंगीले ॥ १४ ॥
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ढाल – ७ – सातमी ॥ वीर जिणंद वैरागीया ॥ ए देशी ॥ अर्बुद गिरिवर गाईयो, शास्त्र श्रवण आधारोरे; ए गिरि दीठा वांदतां, में सफल कीयो अवतारोरे ॥ में सफल कीयो अवतारोरे ॥ अर्बुद गिरिवर गाइयो | ए आंकणी ॥ १ ॥ जिहां जिनवरनां जन्म छें, दीक्षा ज्ञान विशेषोरे; मुक्ति गया जिहां जिनवरु, ते भूमिका पावन लेखोरे ॥ अर्बुद ॥ २ ॥ सिद्व अनंता जिहां थया, यतिवर ध्यान प्रमाणेंरे; ते स्थानिक नित्य वांदतां भवसागर अंत ते आणिरे ॥ अर्बुद ॥ ३ ॥ आबुकल्प जिन मत विषे, कहितां नावे छेडोरे; रसकूपी छे एणे डुंगरे, कंचननो वर्षे मेहोरे ॥ अर्बुद ॥ ४ ॥ आबु
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चैत्यप
रिपाटी
स्तवनम्
॥१५९॥