Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
View full book text
________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
सौभाग्य पंचमी
॥१४७॥
www.kobatirth.org.
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
पासे; प्रेमे जो उध्यम उल्लासे, कांति सकल विद्या अभ्यासे ॥ जी पंडीत जीजी रे ॥ १८ ॥ ढाल - ३ – त्रीजी ॥ करहलडीनी ॥ देहरे शिखर चढावीयो रे ॥ स्थीर न रहे तेणि वार ॥ ए देशी ॥ नंदन ते जीन देवना, करता अति चपलाई; काइ न विद्या साधे हो लाल, बोले बोल कु देवनां, रस राता मद मद माता; न भणे पल
एक आधें हो राजि ॥ १ ॥ सीख न माने हीत तणी, दुःख रोता मुख जोता कहे; नीज माता आगे हो राजि०; मारे तार्डे अम भणी, अध्यारु हतियारो; खारो अमने लागे हो राजि ॥ २ ॥ मात कहे नंदन शुणो, काम कीस्यो भणवानो; मानो सीक्षा मानी हो राजि०; नाम लीयें जो तुम तणो, तो हीयडामां साह्मां हणज्यो; इंटज छांनी हो राजि ॥ ३ ॥ फिरी नही आवे बारणें, वीण औषध खस हाणी; थास्ये टाढे पाणी हो राजि०; पंडीत मुर्ख समा गणे, काल न छोडें त्रोडे; कुण मुर्ख कुण नाणी हो राजि ॥ ४ ॥ कंठ शोषमां फल नही इंम वीष वयण वधारी; सुतनें भणता वारी हो । | राजि०; धम धमती आवी पछे, पंडीतनें ओलंभा द्ये; त्यां भारी नारी हो राज ॥ ५ ॥ पाटी पोथी
For Pivate And Personal Use Only
स्तवनम्
॥९४७॥