Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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स्तवनम्
सौभाग्य पंचमी
रीसमां, जालें पावक काले बालें, कलनी जाइ हो राजि०; पती आव्यो घरनीगमा, कहें प्रेमदाने, स्याने: कीधी नीच कमाइ हो राजि ॥६॥ कुण देस्य सुतने सुता, नीर्वाह कीणीपरें थास्यें; सीदासें व्यापारें हो राजि०; कालें ए निर्धन हता, मुर्ख मुख कहास्य; जास्ये कुण आधारें होराजि॥७॥वचन सुणी प्रेमदा कहें, कां न भणावो पोते; जो ते वांक तुम्हारोहो राजि० सेठ अबोल्यो तव रहे, अनुक्रमें श्रुत मती वाम्यां; पाम्यां यौवन सारो हो राजि ॥८॥ कन्या कोइ दीयें नही, कुल रुडुं पण कुटुं ज्ञान नही जन भाषे हो राजि०; सेठ कहे अवसर लही, कन्या कोइ कदीयें न दीयें; वीद्या पाखें हो राजि ॥९॥ तुज वांके कोरा रह्यां, पुस्तक पाटी बाली; दुहव्यो पंडीत गाली हो राजि०; आलिंकां बोलो वह्या, पुत्र जनक वश बाली; कहीयें मानी पाली हो राजि ॥ १०॥ सेठ कहे तव रुठडो, आपण दोष उपाइ; पापिणी इंम कां बोले हो राजि०; तुज जनक पापी वडो, मूढे समजाव्यो; आव्यो तुंपशु तोले हो राजि ॥११॥पठर दल करमांग्रही, रसमें दशमें द्वारें; नाहे नारीमारी हो राजि०; काल धर्म तिहाथी लही, तुज घरे गुणनी पेटी; बेटी ए थइ प्यारी हो राजि ॥ १२॥ कीधी ज्ञान
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