Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
View full book text
________________
सौभाग्य
स्तवनम्
पंचमी
॥१४५॥
साखे आराधतां साधता वाधे तेज ॥१॥ देव असुर नर लोके रे पुजीत त्रीभुवन भाण ॥ एक दिन नेमि समोसर्या द्वारिका नयरी उजाण ॥ त्रीगडे देव वीराजे रे गाजे दुंदुभि नाद ॥ चढत दीवाजे रे भाजे मोह तणां उन्माद ॥ २॥ कानड हलधर आदिरे यादव वीर अनेक ॥ परवर्या रुधि अछे के वांदे धरीय विवेक ॥ बेठी पर्षदा बारे रे आरे जीनने आय ॥ क्लेस मथन उपदेसतां भाषे श्री जीनराय॥३॥पंच प्रमाद नीवारो रे धारो व्रत नीज अंग । तारो आतम आपणो वारो भवनो संग ॥ आतिम सक्ति संभालो रे टालो विषय कषाय ॥ सहज धर्म अजुआलो रे एहीज तरण उपाय ॥४॥ दसण नाण चरीत्तरे ए छे मुक्तिना अंग ॥ चारीतनी भजना हुई दसण नाण स संग ॥ पहेलं ज्ञान जो होय रे तो करे क्रीआ सार ॥ अन्नाणी स्युं करस्य नाणीनी बलिहार ॥ ॥५॥ अन्नाणी फल काचे रे माचे आचे आप ॥ साचे नाणी राचे जाचे एह न ताप॥भोग उदय ते देखे रे लेखे ए तो वीपाक ॥ एहने नाण विभागे रे लागे जीम किंपाक ॥ ६॥ क्रीआ करतां केतारे नाणी वीरला होय ॥ नाण क्रीया मांहे अंतर सरसव मेरु नो जोय ॥ रुपी अरुपी
॥१४५॥
For Fate And Personal use only