Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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ShiMahaveJainrachanaKendra
Acharya Sun Kailasagersuri Syamandit
स्तवनम्
सीमंधरजिन
"अथ श्री सिमंधर जिन स्तवनम्" I अहो गतिवाले साजन ॥ ए देशी॥ ढाल-१-ली॥निश्चय नय वादी कहे, एक भाव प्रमाण छ | साचो रे; वार अनंती जे लही, ते क्रियामां मत राचो रे ॥ चतुर सनेही सांभलो ॥ ए आंकणी ॥
१॥ भरत भूप भावे तों, वली परिणामे मरु देवा रे; अवेयक उपर नही फले, द्रव्य क्रियानी सेवा रे ॥ चतुर० ॥२॥ नय व्यवहार कह्यो तुमे, किम भाव क्रिया विण लहेस्यो रे; रतन शोध शत पुटपरे, क्रिया ते साची कहशो रे ॥ चतुर०॥३॥ एक सहेजे एक यत्नथी, जिम फलकेरो परि पाकोरे; तिम क्रिया परिणामनो, जग भिन्न भिन्न छ वांकोरे ॥ चतुर०॥ ४ ॥ स्हेजे फल अमे पामश्युं, इम गलिया बलद जे थायरे; स्हेजे तृपता ते दृश्य, कां अन्न कवल करी खाय रे ॥ चतुर० ॥५॥ विण व्यवहारे भावजे, ते तो क्षण तोलो क्षण मासोरे; तेहथी हांसि उपजे, वली देखे लोक तमासोरे ॥ चतुर०॥६॥ गुरु कुलवासी गुणनिलो, व्यवहारे स्थिर परिणामी रे; त्रिविध अवं चक योगथी, होए सुजस महोदय कामी रे॥ चतुर०॥७॥
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