Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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Achan Kailas
Gyamandi
और काकेश हो श्री धर्मचंद्रके-विवेक मुज मनमां गम्यो; कलापक हो श्री विशोम पहके-अरण्य नाथ । स्तवनम् दशीनुं
कीर्ति घणी, पुस्कर द्वीपे हो चोविशी त्रण्यके-त्रीश चोविशि स्तुति भणी ॥६॥
ढाल-४-थी॥ कोइ ल्यो पर्वत धुंधुलो रे लोल॥ए देशी॥नेमि जिनेश्वर उपदिश्यो रे लोल०,8 अद्भुत एह अधिकार रे॥सुगुण नर सांभलतां चित्त हरखीयो रे लोल०, हुवो जय जय कार रे॥सुगुण नर॥श्रीजिनशासन जग जयोरेलोल०॥ए आंकणि॥१॥मंत्र जंत्र मणि औषधीरे लोल,सकल जंत हित कार रे॥सुगुण नर॥ एह नित्य थुणतांथकां रे लोल०, टाले विषय विकार सुगुण नर॥श्रीजिन ॥२॥ रोग ने शोक विजोगडा रे लोल०, नाशे उपद्रव दुःख रे सुगुण नर सेवंतांसुख स्वर्गनां रेलोल०, वलि पामे शीव शर्म रे॥सुगुण नर॥श्रीजिन ॥॥आराधन विधि सांभलो रेलोल०, चोथ भक्त उपवास रे॥ सुगुण नर॥मौन ध्यान ध्यानतां रे लोल०, होये अघनो नाश रे॥सुगुण नर॥श्रीजिन॥४॥ अहोरत्तो पोसह करि
रे लोल०, जपिये ए जिन नाम रे ॥सुगुण नर ॥रिद्ध वृद्धि सुख संपदारे लोल०, लहिए शिवपूर ठाम हारे॥ सुगुण नर॥श्रीजिन ॥५॥ मृगशिर शुद एकादशी रेलोल०, इग्यार वर्ष वखाण रे॥ सुगुण नर॥मास
शां० २०
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