Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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मौनएका चित्त आंण हो ॥ नाथ० साचो० दूःख० मोहनो० साहे. भवि० एहिज० ॥ ४ ॥ परम नाथ सुधारति-18 स्तवनम् दशीनुं भवि०, किजें निकेस सेव हो; सर्वार्थ हरिभद्रजि-भवि०, मगधाधिप शुद्ध देव हो॥नाथ० साचो० दुःख० ।
मोहनो० साहे. भवि० एहिज०॥५॥प्रयच्छ अक्षोभ जिनवरा-भवि०, मलयसिंह नित्य वंद हो; दिनकर धनंद प्रभु नमो-भवि०, पौषध समरस कंदहो॥नाथ० साचो दूःख० मोहनो० साहे भवि० एहिज०॥६॥
दुहा-जिन प्रतिमा जिन वाणीनो, मोहटो जग आधार; जिव अनंता एहथी, पाम्यां । भवनो पार ॥ १॥ नाम गोत्र श्रवणे सुणी, जपे जे जिनवर नाम; आठ कर्म अरि जितिनें, पामे शिवपूर ठाम ॥२॥
ढाल-३-जी ॥ मोरा साहेब हो श्री शितल नाथ तो विनती सुणो एक माहरि ॥ ए देशी ॥ श्री प्रलंब हो चारित्र निधि देवके प्रशमराजित नितु वंदियें, श्री स्वामिक हो विपरीत प्रसादके वंदि पाप निकदिए; श्री अघहित हो ब्रह्मणेंद्र जिनराजके ऋषभ चंद्र चित्त आणिए । पश्चिममा हो
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