Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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जिन
चोवीश
आंतरानुं ॥ ढाल-२ बीजी-सोना-केरुं मारु बेडलु रे, खाम अलगा रहेजो; रुपला इंढोणि हाथ, हो|
|स्तवनम् IF स्वाम अलगा रहेजो ॥ ए देशी ॥ शौरी पूर नयर सोहामणुं रे, जग जीवना रे नेम; समुद्र
वीजय नरपाल हो दील रंजना रे नेम, चव्या अपराजीत थकी रे, जगजीवना रे नेम, कार्तिक वदि बारस दिन हो, दिल, रंजना रे नेम ॥ ए आंकणी॥१॥ शीवादेवी कुखे अवतर्या रे, जग मान सर जिम मराल हो, दील० श्रावण शुदि दिन पंचमी रे, जग०; प्रसव्यो पुत्र रत्न हो, दील० ॥ २ ॥ जोबनवय प्रभु अवीयां रे, जग०; नील कमल दल वाण हो, दील०३ परणो सुंदर सुंदरी रे, जग०; एम कहे गोपी कान हो, दील० ॥ ३ ॥ श्री उग्रसे | ननी कुंवरी रे, जग; वरवा कीधी जाण हो, दील० पशु देखी पाछा वल्यां रे, जग हुआ जादव कुल हेरान हो, दील०॥४॥त्रोडां हारने हारडा रे, जग०, राजुल दुःख न माय हो, दील०| कहे पीउजी पाए पहुं रे, जग; छोडी मुने मत जाओ हो, दील०॥ ५ ॥कीडी| कटक करो रे, जग; ए तुम कुण आचार हो, दील. माणसनां दिल दुहवो रे, जग०; पशुआंशुं करो
REX-ESCR-नाक-
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