Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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Acharya Sankalaager
Gamandi
स्तवनम्
समकित-सग कर्मने॥६॥ ढाल-पूर्वली ॥ पल्योपम असंख्यातमो, भाग ते उणो जाणो रे; कोडाकोडी सागर पच्चीशीनुं माहिं, स्थिति बांधे एम आणो रे ॥७॥ ॥११॥
टक-आणो मनमां एह सत्ता यथा प्रवृत्ति व्यापार ए, कोइ प्रछे किम खपावे अणाभोग तिणि वार ए: गुरु कहे सांभल शिष्य आगल उपलनो दृष्टांत ए, जेह सांभली जाए संशय चित्त हर्षित हंतए ॥८॥ ढाल पूर्वली ॥ पर्वत भूमी नदी यथा, उपल शकल जिहां बहला रे; पवना घोलना बहु हुए, पाणीनां बहु छोला रे॥९॥
टक–बह छोहला होय इणीपेरे उपलना कटका तिहां, त्रण खुणा गोल केह चार खुणा पण जिहां; सहेज भावे इम होवे अना भोगथी बहुपरे, हा हा गंठी देश पण प्रभु तुज दर्शन नविधरे ॥१०॥ ढाल पूर्वली ॥ तिहां गंठी राग द्वेषनी, जीव न भेदी शक्तोरे; पाछो जायकें तिहां रहे, अथवा आगल नवि टकतो रे ॥ ११ ॥
त्रूटक–नवि टकतो कोइ आगल अपूर्व करण मार्गे करी, दुष्ट गंठी भेद कीधो सुपरिणाम
SPACIOSAS
॥११॥
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