Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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स्तवनम्
मौनएका दशीनुं ॥११॥
जिनेश्वर स्तवन करता, मुज मन हर्ष सवायो रे ॥ ६२॥ भावनगर चोमासुं रहीने, वीर जिणंद मलायो रे; चंद्र शशि मद राजावर्षे, शीत आशो बीज गायोरे ॥ ३ ॥ एहनी चर्चा जेह करे तस, थाए निर्मल बुद्धि रे; एह प्रयासथी फल मुज होजो, समकित रत्ननी शुद्धी रे ॥ ६४ ॥ विजय देव सूरिश पटोधर, विजय सिंह गणधारो रे; तास शिष्य पंडित आचारी, सत्य विजय सुख कारो रे॥ ॥ ६५ ॥ कपूर विजय मुनि क्षमा विजय गणी, क्षमा तणो भंडारो रे; तास शिष्य जिनं विजय वैरागी, उत्तम विजय श्रीकारो रे ॥ ६६ ॥ विजय धर्म सूरिश्वर राज्ये, प्रथम जिणंद उपाशी रे; उद्यम पारे खका कहेणथी, घोघा बंदर वाशी रे ॥ ६७॥ ते उत्तम गुरु बह श्रुत ग्राही, गुणवंता वैरागीरे; तास कृपाथी पद्म विजय कहे, शुभ मति माहरी जागीरे ॥६॥
"इति श्री समकित पच्चीशी स्तवनम् सम्पूर्णम्"
"अथ श्री मौन एकादशीनुं स्तवन" दुहा-शांति करण श्री शांतिजी, विघ्न हरण श्री पास; वाय देवी विद्या दिये, समरूं धरी
॥११८॥
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