Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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सीमंधर-दरता, त्यारे वर्तति शांति रे; जे जन जाइने पूछता, तस मन भांजता भ्रांति रे॥ है है झानीनो विरह || स्तवनम् खामी पडयो ॥ ए आंकणी ॥१॥ते तो दहे मुज दुःख रे, खामी सीमन्धर तुम विना; तेमुज कुण करे
सुखरे ॥ है है ॥२॥ विरहणीने रयणी जीसी, तेसि मुज घडी जाय रे; वात मुख नव नवी सांभलं. ॥१०॥
पण मुज निर्णय नवि थायरे ॥ है है ॥३॥ जे जे जीव दुर्भागीया, ते तो अवतरीया इंहाय रे; भूला भमेरे पून्य रहित वाडोलीया, जिहां जिन केवली नाहीरे ॥ है है ॥ ४॥ धन्य महा विदेहनां मानवी, जिहां जिनजी आरोग्य रे; ज्ञान दर्शन चारित्र आद रे, संयम ले गुरू संयोग रे॥ है है॥५॥ 8 ढाल-३ जी॥ मारग देशक मोक्षनारे ॥ ए देशी॥ श्री मंधर खामी माहरा रे, तुं गुरु ने तुं देवा तुज विना अवर न ओलखुं रे, न करूं अवरनी सेवारे॥ इहां किणे आवज्यो, वली चतुर्विध
॥१०६॥ टूसंघनेरे साथे लावज्यो०॥ ए आंकणी ॥१॥ ते किम संघ क्रिया करे रे, किणपेरे ध्याये छे ध्यान;
व्रत पञ्चखाण किम आदरेरे, किणिपरे घे बहु दानो रे ॥इंहां किणे ॥२॥ निश्चे सरसव जेटलो रे, बहु चाले व्यवहार; अभ्यंतर विरला हुआ रे, झाझो बाह्य आचारो रे ॥ इहां किणे ॥३॥ इंहा उचित
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