Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
View full book text
________________
SM Mahavam
A
kende
Achan Kailas
Gyamandi
in ११॥ माहिले त्रण ग्रैवेयकें, शत एक हो सात जिननां गेहकें; बार सहसनें आठसें, जिन बिंब हो
च्यालीश अषेसकें-प्रा०॥ १२॥ उपलें त्रण ग्रैवेयकें, शत एक हो प्रासाद अछेह कें; बार सहस जिन विंबनां, पाय प्रणमुं हो मन आणि नेहकें-प्रा०॥ १३॥ पोढा पांच प्रासाद ,, पंचानुत्तर हो विमान मोझार के छसें जिन बिंब तिहां भलां, एह सर्व हो रयणामय सारकें-प्रा० ॥ १४ ॥ एवं उर्द्ध लोकमां, चउराशी हो लाख प्रासादकें; सत्ताणुं सहस त्रेवीश छ; अति उंचा हो मांडि गयणसुंवादकें-प्रा० ॥ १५॥ एकसो कोडी बावन्न कोडि, चोराणुं हो वलि लाख होय कें; सहस चुम्मालीश सातसें, जिन बिंब हो शाठि शाश्वतां जोयकें-प्रा० ॥१६॥ त्रिभुवनमा हवें सांभलो, आठ कोडि हो सत्तावन्न लाखकें; बसें चोराशी प्रासाद छे, तेह शाश्वता हो इम आगम भाखकें-प्रा० ॥ १७॥ जिन बिंब पन्नरसें कोडि, बेंतालीश हो कोडि मनोहारकें; अठ्ठावन्न लाख उपरि, छत्रीश हो सहस एंसी सारकें प्रा० ॥१८॥ चउ कुंडल चउ ऋचकमां, नंदिश्वरमां हो भुवन बावन्नकें; एसाठि भांख्यां चउ बारां, त्रण द्वारा हो सहस जिन भुवनकें-प्रा० ॥ १९॥ उत्से धांगुल मानथी, अधो उर्द्ध हो
CARRIERC
%
शा..
ॐ
For Pale And Personal use only