Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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शांतिनाथना.
॥ ७७ ॥
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प्रगट थयो हो लाल, भाखे रायने इम; साहे; तुं नवि मुजने ओलखें हो लाल, हुं आव्यो तुज प्रेम; | साहे०; ॥ पर्व तिथी इम पालिये हो लाल ॥ ए आंकणी ॥ १ ॥ श्रेष्ठि सुर हुं जाणज्ये हो लाल, तुज प्रतिबोधन आज; साहे०; शेठ सान्निध्य करवा बली हो लाल०, कीधुं में सवि काज; साहे० ॥ पर्व ॥२॥ धर्म उद्यम करजे सदा हो लाल०, जाउंछु सुण वात; साहे०; तैलिक हालीक रायने हो लाल, प्रति| बोधन अवदात; साहे० ॥ पर्व ॥३॥ तिहां जइ पूर्व भवतणां हो लाल, रुप देखावे तास; साहे०; देखीने ते पामीआ हो लाल० जातिस्मरण खास; साहे० || पर्व ||४|| तेह बिहुं श्रावक थयां हो लाल, पाले नित्य षटू पर्व साहे०; त्रणे ते नर रायने लाल०, साह्य करे ते सुपर्व; साहे० ॥ पर्व ॥५॥ निज निज | देशेनि वारता हो लाल०, मारि व्यसन सवि जेह; साहे०; चैत्य करावे तेहवां हो लाल०, प्रतिमा भरावे तेह; साहे० ॥ पर्व ॥६॥ संघ चलावे सामटा हो लाल०, साहमीवच्छल भलि भात; साहे०; पर्व दिने नित्य नयरमां हो लाल०, पडह अमारि विख्यात; साहे० ॥ पर्व ॥ ७॥ पर्व तिथि सहु पालता होलाल०, राजा प्रजा बहु धर्म; साहे०; इति उपद्रव सहु टले होलाल०, नही निज परचक्र भर्म; साहे० ॥ पर्व ॥८॥
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पंच क०
स्तवन.
॥ ७७ ॥