Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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Gyamandi
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एकमे, शिव पाम्यो गजसुकुमाल रे ॥ सूण ॥ ३१॥ तपनां फल सूत्रे कह्यां, पच्चख्खाण तणां दश भेदरे; अवर भेद पण छे घणां, करतां छेदे तीन वेद रे॥ सूण ॥ ३२॥
कलश-पञ्चख्खाण दशविध फल प्ररुप्या महावीर जिन देव ए, जे करे भवियण तप अखंडित तास सुरपति सेवए; संवत् विधु गुण अश्व शशि वली पौष शुदि दशमी दिने, पद्म रंग वाचक शीश गणी रामचंद्र तप विधि भणे ॥ ३३॥
"इति श्री दशविध पच्चरुखाणस्तवनम् समाप्तमिति"
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___ “अथ श्री उपधान विधि स्तवनम्" A ढाल?-पहेली ॥ सारद बुध दाइ ॥ ए देशी ॥ श्री वीर जिणेश्वर, सुपरि दिए उपदेश; सुणे
बार परषदा, नही प्रमाद प्रवेश ॥ १॥ सूणजो रे श्रावक, जो वहिए उपधान; नवकार गण्यां | तो, सुझे सुगुण निधान ॥२॥
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