Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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शांतिना
थना.
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पंक प्रभा धुम्र प्रभा, तम प्रभ तम तम ठांमरे ॥ श्री जिनवर ॥ ६ ॥ नरक साते एहिज सही, कर्म कठिन करे जोररे; जीव कर्म वश करे जुदा, उपजे तिण हियठोर रे ॥ श्री जिनवर ॥ ७ ॥ ॥ ७९ ॥ छेदन भेदन ताडना, भूख तृषा वली त्रास रे; रोम रोम पीडा करे, परमा धाम्मि तासरे ॥ श्री
जिनवर ॥ ८ ॥ रात्रि दिवस क्षेत्र वेदना, तिलभर नवीतिहां सुख रे; कीयां कर्म तिहां भोगवें, पामें जिव बहु दुःखरे ॥ श्री जिनवर ॥ ९ ॥ इक दिन रे नवकारशि, जे करे भावथी शुद्धरे; सो वर्ष नरकनुं आउखुं, दूर करे ज्ञानी बुद्धिरे ॥ श्री जिनवर ॥ १० ॥ नित्य करे नवकारशी, ते नर नरकें नवी जायरे; न रहे पापवली पाछलां, निर्मल होवे तस काय रे ॥ श्री जिनवर ॥ ११ ॥
ढाल २– जी ॥ श्री विमलाचल शिर तिलो ॥ ए देशी ॥ सूण गौतम पोरसी कीयां, महा महोढुं फल होयरे; भावशुं जो पोरिसी करे, दूर्गति छेदे सोयरे ॥ सुण० ॥ ए आंकणी ॥ १२ ॥ नरक मांहे जीव नारकी, वर्ष एकेक हजाररे; कर्म खपावे नरकमें, करता बहुत पूकाररे | ॥ सू० ॥ १३ ॥ एक दिवसनी पोरसी, जीव करे एक वाररे; कर्म हणे सहस एकनां,
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पंच क० स्तवन.
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