Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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उद्धरीयां, प्रभुजी पर उपगारी; अडद तणां बाकुलां लेइने, चंदन बाला तारीरें हमचडी ॥ १४ ॥ दोय छ मासी नव चउमासी, अढीमासी त्रणमासी; दोढमासी वे वे कीधां, छ कीधां वे मासी रे हमचडी ॥ १५ ॥ बारमासीनें पख बहोतेंर, छठ बसें ओगणत्रीश वखाणुं; बार अठम भद्रादीक प्रतिमा, दीन दोय च्यार दश जांणु रे हमचडी ॥ १६ ॥ इमतप कीधां बारे वरसें, वीण पाणी उल्लासें; तेह मांहें पारणां प्रभुजीए कीधां, त्रणसें ओगण पंचाश रे हमचडी ॥ १७ ॥ कर्म खपावी वैशाख मासें, शुद्ध दशमी सुहजांण; उत्तरा जोगे शाल वृक्षतलें, पाम्यां केवल ज्ञान रे हमचडी ॥१८॥ इंद्रभूती आदें प्रति बोंध्यां, गणधर पदवी दीधी; साधु साध्वी श्रावक श्रावीका, संघ स्थापना कीधी रे हमचडी ॥ १९ ॥ चउद सहस अणगार साधवी, सहस छत्रीश कहीजे; एक लाखने सहस ओगण साठ, श्रावक शुद्ध लहीजें रे हमचडी ॥ २० ॥ त्रण लाखनें सहस अढार वली, श्रावीका संख्या जांण; त्रणसें चउदस पूरव धारी, तेरसें ओही नांणी रे हमचडी ॥ २१ ॥ सातसें तो केवल नांणी, लब्धी धारी पण तेता; वीपुलमती पांचशें कहीएं, च्यारसे वादी तेता रे हमचडी ॥ २२ ॥ सातसें
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