Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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सससससस
सहुविकसी धरां; त्रीभुवन थयो रे उद्योत के रंग वधामणां, सोनां रुपानी वृष्टी करे घर सुर घणां ॥ ११॥ आवी छप्पन कुमारीका ओच्छव प्रभु तणो, चल्युं रे सिंहासन इंद्रके घंटा रणझणे; मलि सुरनी कोडी के सुरवर आवीयां, पंचरूप करी प्रभुनें सुरगीरी लावीयां ॥ १२ ॥ एककोडि साठ लाख कलश जल शुंभाँ, किम सहशे लघु वीरके इंद्र संशय धयॊ; प्रभु अंगुठे मेरं चाप्यो अति धडधडे, गडगडे पृथ्वी लोक जगतना लडथले ॥ १३ ॥ अनंत बल प्रभु जांणी इंद्रे खमाबीयां, च्यार वृषभनां रूप करी जल नांमीयां०,पूजी अरची प्रभुने माय पासें धरे,धरयुं अंगुठे अमृत गयां नंदीश्वरें॥१४॥ ___ ढाल-॥३॥ हमचडी ॥ ए देशी ॥करी महोत्सव सिद्धारथ नृपें, नाम धर्यु वर्द्धमान; दिन दिन वाधे प्रभु सुरतरु जीम, रूपकला असमान रे हमचडी ॥१॥ एक दीन प्रभुजी रमवा कारण, पूर बाहीरज आवें; इंद्र मुखें प्रशंसा सुणीनें, मिथ्यात्वी सुर आवे रे हमचडी ॥ २॥ अहीरूप वीटाणो तरुशुं, प्रभुनांखे उछाली; सात ताडनुं रूप कर्यु जब, मुठे नांख्यो वाली रे हमचडी ॥ ३ ॥ पाए लागीने ते सुर खमा, नाम धर्यु महावीर; जेहवां इंद्रे वखाण्यां स्वामि, तेहवां साहस धीर रे
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