Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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शांतिना- थना.
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ए आंकणी ॥त्रण काल देव वांदीएं, कीजें दीजे हो गुरुने बहु मान तो; पडिक्कमणां दोय वारना, पंच क० जिम व्यापें हो उत्तम गुण ज्ञान तो; सौ०॥ ५७ ॥ नयरी पुंडरी गणी सोहती, विराजे हो अमर
स्तवन. सेन भूपाल तो; तस घरणी शीलें सती, गुणवती कुखे हो अवतरीओ बालतो; सौ० ॥ ५८ ॥ सजन । संतोषी सांमटा, नाम स्थापें हो सूरसेन अभिराम तो; चंदकला जिम वाधती, तीम साधे हो वाघे |निज नाम तो; सौ०॥ ५९ ॥ यौवन वय जाणी पीता, सो कन्या हे परणावी सार तो; राज देइ निज पुत्रनें, अमरसेन पोहतो हे परम लोक मोझारतो; सौ०॥६०॥ सीमंधर आव्यां सांभली, वांदवाने हे आवे तीहां भूपतो; ज्ञान आराधन देशना, देखाडे हे वरदत्त खरुप तो; सौ०॥ ६१॥lk|| सूरसेन हवे वीनवें, प्रभु प्रकाशो हे ते कुण वरदत्त तो; सकल वात मांडी कही, तप मांड्यो हे कीजें रंग रत्ततो; सौ०॥ ६२ ॥ जीनवर वांदी आवीओ, संवेगे हे मुके घर भारतो; सिंहतणी परें।
॥६ ॥ आदरी, जिणें लहीएं हे भवजल नो पारतो; सौ०॥ ६३ ॥ पंच महाव्रत आदरो, सहस वरस हैं पामे केवल ज्ञान तो;॥ अविचल सुख एणे लह्यां, निसुणि हे आराहो ज्ञान तो; सौ०॥१४॥
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