Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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धाडज पडी ॥५॥ पाडो शण मन चिंते इस्यु, पापी शेठनुं न गयुं किस्यु; देती श्रापने निर्धन थयां, ते दम्पति सुरलोकें गया ॥६॥ सोम सुंदरी गुणी मत्सर भरी, अशुभ कर्म उपार्जन करी; पामी मरण सा कोइक गुणी,श्रावक मुख नवकारज सुंणी॥७॥जित शत्रु मथुरांनो राय,चउ सुत उपर बेटी थाय; सर्व ऋद्धि नामज तस देइ, पंच धावशुं मोटी थइ ॥ ८॥ शत्रु सैन्य समुहें नड्यो, जित शत्रु रणयोगें पड्यो; लुट पडी जब राजद्वार, कुमरी पण नाठी तेणी वार ॥९॥ उजाति एक अटवी पडी, रवि उदयें मारग शिर चडी; वन फल वृत्तें वने चर थइ, यौवन वेला निष्फल गइ॥ १०॥ एक विद्याधर देखी करी, परणि सा निज मंदिर धरी; तिणि वेला घर लागी गयुं, सर्व ऋद्धि पगलें थी थयुं ॥ ११ ॥ विद्या धेरै फरि वनमां धरी, पल्लि पती एक भिल्लें हरी; त्रीजें दिन घर तेहy बल्युं, नारि निंदन सहु जन भल्युं ॥ १२ ॥ सार्थ वाह कर वेची तिणे, चाल्यो निज देशावर भणी; पंथ वचे लुटाणो एह, सर्व ऋद्धि नाठी लेइ देह ॥ १३ ॥ वनमां सरोवर तीरें
।, राजकुमारी करमें नडी; पुण्यें मुनि मलियां गुण गेह, मिठे वयणे बोलावी तेह ॥ १४॥
शां. ५
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