Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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अधिकार रे सुंगुण नर; वर्ते शासन जेहनुरे लोल, एकवीश वरस हजार रे;॥सुं० वी० ए आंकणी ॥१॥ जिहां सफल जिन गुंण धुंणी रेलोल०, दीहा सफल प्रभुध्यांन रे; ॥सु०॥जन्म सफल प्रभु दरिसणे रे लोल; वाणी ए सफला कांन रे; सु० वी० ॥२॥ तास परंपर पाटवी रे लोल; श्री विजयसिंह सूरीश रे; सु० सत्य विजय बुध तेहना रे लोल०, कपुर विजय कवि शीष्य रे सु० वी०॥३॥ खिमा विजय गुरु तेहनां रे लोल०,श्री जश विजय पन्यास रे सु०॥श्री शुभ वीजय सुगुरु नमीरे लोल०, ६ सुरत रहि चउ मास रे; सु० वी० ॥४॥ चंद्र मुनी वसु हिमं करूं रे लोल०, ( १८७१ ) वरसें ।
श्रावण मास रे; सु०॥ श्री शुभ वीरने शासने रे लोल०, होज्यो ज्ञान प्रकाश रे; सु० वी०॥५॥ कलश-ए पंच ढाल रसाल भक्तिं पंच ज्ञान आराधवा, काम प्रसाद किरिया पंच छंडी पंचमी गति साधवा; नभ कृष्ण पंचमी स्तवन रचियुं अक्षय निधि के कारणे, शुभ वीर ज्ञाने देव सुंदरि नाचवा घर बारणे ॥ ५१॥ इति अक्षय निधि तप स्तवनं संपूर्ण ॥
ॐॐॐनक
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