Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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शांतिना
थना.
॥ २६ ॥
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काचुं जी ॥ सुं० ॥ आवंती मांहें वखाण्यां जी ॥ सुं० ॥ तेहवामें तुमनें जांण्याजी ॥ सुं० ॥ २ ॥ सूरि वंदि निजघर आवें जी ॥ सुं० ॥ तप अक्षय निधि मंडावें जी ॥ सु० ॥ राजा रांणी तिणि वेला जी ॥ सुं० ॥ शेठ सामंत सर्वे भेलां जी ॥ सुं० ॥ ३ ॥ पग पग प्रगटें जे निधांन जी ॥ सुं० ॥ करे प्रभावना बहु मांनजी ॥ सुं० ॥ नाम सुंदरी ते विसरांणी जी ॥ सुं० ॥ तेतो अक्षयनिधि कहेवांणी जी ॥ सुं० ॥४॥ मन मोटें पूरण फल लीधुं जी ॥ सुं० ॥ पंचमीए पारणं कीधुं जी ॥ सुं० ॥ ज्ञान भक्ति महोत्सव देखी जी ॥ सुं० ॥ देवी देव हुआ अनि मेषी जी ॥ सुं० ॥ ५ ॥ सुख विलसंतां संसार जी ॥ सुं० ॥ हुआ सुत चउ पुत्री च्यार जी ॥ सुं० ॥ लियो एने संयम भार जी ॥ सुं० ॥ धन धाती खपाव्यां च्यार जी ॥ सुं० ॥६॥ लही केवल शीवपुर जावें जी ॥ सुं० ॥ गुण अगुरु लघु निपजावें जी ॥ सुं० ॥ अवगाहन लक्षण संता जी ॥ सुं०॥ तिहां बीजां सिद्ध अनंता जी ॥ सुं० ॥७॥ तस फरसित देश प्रदेसें जी ॥सुं० ॥ असंख्यगुणा सुविषेसे जी ॥ सुं०॥ जुओ प्रथम उपांग ठामजी ॥ सुं० ॥ शुभ वीर करे प्रणांम जी ॥ सुं० ॥८॥ ॥ ढाल – ॥५॥ कोइ ल्यो पर्वत धुंधलोरे लोल॥ ए देश ॥ वीर जिनेश्वर गुण नीलोरे लोल, ए भाख्यो
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पंच क० स्तवन.
॥ २६ ॥