Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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स्तवन.
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शांतिना- विचारी रे प्रा०॥५॥ नियत वसे हल करमो थइनें, निगोद थकी निकलीओ॥ पुण्ये मनुज
थना. भवादिक पांमी, सहगुरुने जइ मिलीओ रे प्रा०॥६॥ भव स्थिति नो परिपाक थयो जब, पंडित ॥१८॥
18 वीरज उल्लसीओ ॥ भव्य स्वभावें शिव गति गांमी, शिवपूर जइने वसिओ रे प्रा० ॥७॥ हवर्द्धमान जिन इंणी परें विनये, शासन नायक गायो; संघ सकल सुख होएं जेहथी, स्याद्वाद रस | पायोरे प्रा०॥८॥
कलश-इंम धर्मनायक सुमतिदायक वीर जिनवर संधुण्यो, सय संतर संवत वह्नि लोचन, वर्ष हर्ष धरी घणो ॥ श्रीविजय देव सूरींद पटधर श्री विजय प्रभ सूरिंद ए, श्री किर्तीविजय वाचक शीश इणी परें विणय लहे आणंद ए ॥९॥
“इति वीरजिन स्तवनम् पंचकारणगर्भितम् समाप्तम्" श्रीकिर्तीविजय उपाध्याय शिष्य श्रीविनयविजय उपाध्याय विरचित श्री
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॥१८॥
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