Book Title: Jain Prachin Purvacharyo Virachit Stavan Sangrah
Author(s): Motichand Rupchand Zaveri
Publisher: Motichand Rupchand Zaveri
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जूओ कर्मनां मर्म तो ॥ ७ ॥ दृढ प्रहारी हत्या करीए, कीधां पाप अनंत तो ॥ उद्यमथी षटू मासमां ए, आप थयां अरहंततो ॥ ८ ॥ टीपें टीपें सर भरेए, कांकरे कांकरे पालतो ॥ गिरि जेहवां गढ नीपजें ए, उद्यम शक्ति निहाल तो ॥ ९ ॥ उद्यम थी जल बिंदुओ ए, करे पाहाणमां ठामतो ॥ उद्यमथी विद्या भणेंए, उद्यम जोडें, दामतो ॥१०॥ ढाल ॥ ६ छट्टी ॥ ए छिंडी किहां राखी | ॥ ए देशी ॥ ए पांचे नय वाद करंता, श्री जिन चरणे आवे ॥ अमीय सरस जिन वांणी सुणिने, आणंद अंग न मावेंरे प्राणी समकित मति मन आणो ॥ नय एकांत म ताणो रे प्रा० ॥ ते मिथ्या मति जाणोरे प्रा० ॥ ए आंकणी ॥१॥ ए पांचे समुदाय मिल्यां विण, कोइ काज नवि सीजे ॥ अंगुल योगें कर तणी परें, जेबूझें ते रीझेरे प्रा० ॥ २ ॥ आग्रह आणी कोइ एकनें, एहमां दीएं वडाइ ॥ पण सेना मली सकल रणांगण, जितें सुभट लडाइ रे प्रा० ॥ ३ ॥ तंतु स्वभावें पट उपजावे, | काल में रे, वणाय ॥ भवितव्यता होयतो नीपजे, नहीं तो विघन घणांय रे प्रा० ॥ ४ ॥ तंतु वाय उद्यम भोक्तादिक, भाग्य सकल सहकारी ॥ इमे पांचें मिलि सकल पदारथ, उत्पत्ति जूओ
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