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जैन परम्परा का इतिहास
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धर्म- तीर्थ - प्रवर्तन
कर्त्तव्य बुद्धि से लोक-व्यवस्था का प्रवर्तन कर ऋषभदेव राज्य करने लगे । बहुत लम्बे समय तक वे राजा रहे। जीवन के अन्तिम भाग में राज्य त्याग कर वे मुनि वने । मोक्ष-धर्म का प्रवर्तन हुआ । यौगलिक काल में क्षमा, सन्तोष आदि सहज धर्म ही था । हजार वर्ष की साधना के बाद भगवान् ऋषभदेव को कैवल्य-लाभ हुआ | साधु-साध्वी श्रावक-श्राविका - इन चार तीर्थो की स्थापना की । मुनि-धर्म के पाँच महाव्रत और गृहस्थ धर्म के बारह व्रतो का उपदेश दिया | साधु-साध्वियों का सघ बना, श्रावक-श्राविकाए भी बनी । साम्राज्य - लिप्सा और युद्ध का प्रारम्भ
भगवान् ऋषभदेव कर्म-युग के पहले राजा थे । अपने सौ पुत्रो को अलगअलग राज्यो का भार सौप वे मुनि वन गए । सबसे बडा पुत्र भरत था । वह चक्रवर्ती सम्राट् बनना चाहता था । उसने अपने ६६ भाइयो को अपने अधीन करना चाहा । सबके पास दूत भेजे । ६८ भाई मिले । आपस मे परामर्श कर भगवान् ऋषभदेव के पास पहुँचे । सारी स्थिति भगवान् के सामने रखी । द्विविधा की भाषा मे पूछा- भगवन् ! क्या करें ? बड़े भाई से लड़ना नही चाहते और अपनी स्वतन्त्रता को खोना भी नही चाहते । भाई भरत ललचा गया है । आपके दिये हुए राज्यो को वह वापिस लेना चाहता है । हम उससे लड़ें तो भ्रातृ-युद्ध की गलत परम्परा पड़ जाएगी । विना लडे राज्य सौप दें तो साम्राज्य का रोग बढ जाएगा । परम पिता ! इस द्विविधा से उबारिए | भगवान् ने कहा- पुत्रो । तुमने ठीक सोचा । लडना भी बुरा है और क्लीव वनना भी बुरा है। राज्य दो परो वाला पक्षी है । उसका मजबूत पर युद्ध है । उसकी उडान मे पहले वेग होता है अन्त में थकान | वेग मे से चिनगारियाँ उछलती है । उडाने वाले लोग उससे जल जाते है । उडने वाला चलता-चलता थक जाता है । शेष रहती है निराशा और अनुताप । पुत्रो । तुम्हारी समझ सही है । युद्ध बुरा है - विजेता के लिए भी और पराजित के लिए भी । पराजित अपनी सत्ता को गँवा कर पछताता है और विजेता कुछ नही पा कर पछताता है । प्रतिशोध की चिता जलाने वाला उसमे