Book Title: Jain Parampara ka Itihas
Author(s): Nathmalmuni
Publisher: Adarsh Sahitya Sangh
View full book text
________________
जन परम्परा का इतिहास
[१५५ जे खलु विसरिसकप्पा, संघयण धिइयादि कारण पप्प । णऽ वमन्नइ ण य हीणं, अप्पाण मन्नई तेहिं ॥ २॥ सम्वे वि जिणाणाए, जहाविहिं कम्म खवणट्ठाए । विहरति उजया खलु, सम्म अभिजाणइ एवं ॥ ३ ॥
-आचा. वृ० १६३ ५०-६६८० ५१-० सु० ५२-देवढि खमासमण जा, परंपर भाव ओ वियाणेमि । सिठिलायारे ठविया, दम्वेण परपरा बहुहा ।
~ ० अ० ५३---सू० २।२,५४ ५४ जीवाभिगम ३।२।१०-४
तीन : १-जहजीवा वज्झति, मुच्चति जह य सकिलिस्सति ।
जह दुक्खाण अत करति कइ अपडिबद्धा-औप० धर्म० ४ २-न० ४६ ३-सर्वश्रुतात् पूर्व क्रियते इति पूर्वाणि, उत्पादपूर्वाऽ दीनि चतुर्दश ।
-स्था० १० १०११ ४-जइविय भूयावाए सव्वस्स वयोगयस्स ओयारो।
निजहणा यहा विहु दुम्मेहे पप्प इत्यी य -आव०नि० पृ० ४८,
वि० भा० ५५१ ५- न० ५७, सम० १४ वां तथा १४७ वां ६-न० ७-"भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइखई"-सम० पृ० ६०
"तए ण समणे भगवं महावीरे कूणि अस्य रणो भिभिंसारपुत्तस्स...... अद्धमागहाए भासाए भासइ सावि य ण अद्धमागहा भासा तेर्सि सन्चेसिं आरियमणारियाण अप्पणे सभासाए परिणामेण परिणमइ.....
-औप०

Page Navigation
1 ... 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183